हिंदुस्तान पर मुगलिया हुकूमत का ख्वाब कभी पूरा नहीं होगा
अकेला
दिवाली के मौके पर जब बहुतेक हिंदू ट्विटर पर आतिशबाजी का जश्न मना रहे थे और इस बात पर खुशी जाहिर कर रहे थे कि पटाखों पर बैन की सबने मिलकर क्या खूब धज्जियां उड़ा दीं, लगभग उसी वक्त देश के अलग-अलग हिस्सों में मुसलमान अपने-अपने इलाकों में इस बात पर ऐतराज जाहिर कर रहे थे कि वहां लोग झालरें क्यों सजा रहे हैं, रंगोली कैसे बना रहे हैं या खुशियां कैसे मना रहे हैं।
कुछ लोगों के लिए ये छोटी-मोटी बात हो सकती है। उलझने वाले लोग तर्क दे सकते हैं कि भई, अगर समुदाय विशेष के लोगों को ईद पर सोसायटी में कुर्बानी की अनुमति नहीं मिलती, तो दूसरों को पटाखे जलाने या बिजली की झालरें लगाने की अनुमति भी क्यों दी जानी चाहिए…और अगर कोई सेकुलर शांतिप्रिय बंदा होगा तो कहेगा कि भई जाने दो… हर तरफ कुछ शरारती तत्व होते हैं… माहौल खराब करते हैं… उनकी तरफ ध्यान मत दो…. नफरत के बाजार में बस पैम्फलेट की तरह चुपचाप मोहब्बत बांटकर निकल लो…. यानी खामोशी से सह लो जैसे अब तक सहते आए हो….
लेकिन सवाल है कि खामोशी से सह लेने या आंख-कान मूंदकर नजरंदाज करने से मसला हल हो जाएगा? क्या वृहद हिंदू समाज अब तक इसी बहकावे में अपना बहुत कुछ नहीं गंवा चुका कि सब्र करो, सब ठीक हो जाएगा! सब्र करने और नजरंदाज करने से ही सब ठीक होना होता तो बहुत-सी चीजें 1947 में ही ठीक हो गई होतीं, जब देश का बंटवारा हुआ था. तब समुदाय विशेष के रहनुमाओं ने साफ-साफ कह दिया था कि हम दो अलग-अलग कौम हैं। हम हर तरह से एक-दूसरे से अलग हैं। खान-पान से लेकर रहन-सहन और सोच-विचार तक, हमारी हर चीज जुदा है, इसलिए हम एक साथ नहीं रह सकते, हमें हमारा अलग मुल्क दे दो….
इसके बाद उन्होंने अपना अलग मुल्क ले लिया। सब बांट लिया। जमीन से लेकर आसमान तक… दरिया से लेकर पहाड़ तक… इतिहास गवाह है कि इसके लिए उस दौर में ब्रिटिश भारत के तकरीबन 87 फीसदी मुसलमानों ने अलग मुल्क पाकिस्तान के पक्ष में वोट किया था. (देखें चार्ट) हालांकि यह भी उतना ही सच है कि इन पाकिस्तान समर्थक मुसलमानों में से कोई भी पाकिस्तान नहीं गया।
अब यहां वह लाख टके का सवाल पैदा होता है कि जब इतनी बड़ी तादाद में मुसलमान अलग मुल्क चाहते थे तो वे वहां गए क्यों नहीं? दरअसल, इस सवाल के जवाब में वह राज की बात छिपी हुई है, जिसकी तब का हिंदू समाज कल्पना भी नहीं कर सकता था। यह कहना गलत नहीं होगा कि आजादी की लड़ाई के दौरान जहां बहुसंख्यक समाज अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिए आंदोलन कर रहा था, वहीं मुस्लिम समाज उसकी आड़ में अंग्रेजों से अपनी सल्तनत वापस पाने के लिए संघर्षरत था। यह वो सच्चाई है, जिसे मुगलिया इतिहासकारों ने उजागर नहीं किया और इतिहास को तोड़-मरोड़कर हिंदुओं को लंबे अरसे तक मुगालते में रखा।
आज भारत के मुसलमान कहते हैं कि वे सेकुलर हैं, देशप्रेमी हैं, इसलिए पाकिस्तान नहीं गए। अगर वे सेकुलर नहीं होते, देश प्रेमी नहीं होते तो पाकिस्तान चले गए होते… वे यहां रुके हैं तो अपनी मर्जी से… उन्होंने इस मुल्क को रहने के लिए चुना है, क्योंकि यह उनका मुल्क है…. तो समझने वालों को समझ जाना चाहिए कि वे पाकिस्तान के पक्ष में वोट करके, उसे हिंदुस्तान से अलग करके भी यहां जमे हुए हैं तो इसलिए कि वह इसे अपना मुल्क मानते हैं। वह मुल्क जो अंग्रेजों ने बहादुरशाह जफर से छीना था। वह मुल्क जिस पर उनके तथाकथित पूर्वजों- बाबर, हुमायूं, अकबर और औरंगजेब ने राज किया था। उस मुल्क को अगर अंग्रेजों ने किसी तरह छीन भी लिया था, तो उनका फर्ज था कि लौटाते समय उसे मुगलों को ही लौटा कर जाना चाहिए था। यह कान्सेप्ट मुस्लिमों के दिमाग में बहुत पहले से क्लियर है। हालांकि हिंदुओं का नजरिया ऐतिहासिक पराजयों के कारण ‘कोऊ नृप होय हमैं का हानी’ के सूत्रवाक्य से नालबद्ध हो गया है जिसे गांधी की अहिंसा ने और भी सत्य से विमुख कर दिया।
बहरहाल, एक कौम, जिसका एजेंडा सदियों से बिल्कुल साफ है, जो इस देश पर फिर से अपनी हुकूमत कायम करना चाहती है, वह एक पाकिस्तान बन जाने के बाद खामोश बैठी होगी, ऐसा सोचने वालों की आंखें उस खबर से बिल्कुल खुल जानी चाहिए, जिसमें सामने आया है कि कैसे पीएफआई नाम का संगठन सन 2047 तक भारत में इस्लामी शासन स्थापित करने के मंसूबे से काम करता पकड़ा गया है। सन 2047 यानी भारत की आजादी का सौंवा साल। यह महज इत्तेफाक नहीं है। यह उस सोच का नतीजा है, जो इस मुल्क को अपना, सिर्फ अपना मुल्क मानती है। सच कहें तो मुल्क नहीं, बल्कि अपनी मिल्कियत मानती है। खुद को हाकिम-हुक्काम समझती है। मुगलिया सल्तनत को महान बताती है। लेकिन इस सवाल का जवाब नहीं दे पाती कि अगर बंदूक के दम पर राज करने वाले अंग्रेज जल्लाद थे, तो तलवार के जोर पर हुकूमत करने वाले मुगल महान कैसे हो गए!
खैर, पीएफआई का 2047 वाला प्लान तो बेनकाब हो गया है। आने वाले दिनों में कभी कामयाब भी होगा, लगता नामुमकिन है, क्योंकि 1947 से 2014 तक भले ही बहुत कुछ न बदला हो, लेकिन 2014 से 2024 तक बहुत कुछ बदल गया है। बहुसंख्यक समाज की आंखों पर से हर ओर हरियाली के दर्शन कराने वाला हरा चश्मा उतर चुका है। उसे रंगे सियारों की असलियत नजर आने लगी है। इस देश का इतिहास ही नहीं, भूगोल भी उसे ज्ञात हो चुका है। उसकी सहिष्णुता किस तरह उसके अस्तित्व के लिए आत्मघाती सिद्ध हुई है, इसका भी उसे बोध है। इसलिए अब वह मुखर हो रहा है, प्रतिक्रियावादी हो रहा है, उग्र होना सीख रहा है। जल्द ही वह अपनी सीमाओं को आजाद कराने में सफल होगा। जो लोग फिर से बादशाही ताज और बाप का राज पाने की हसरत पाले बैठे हैं, उनके हाथ कुछ नहीं लगने वाला।